Thursday, July 31, 2008

किताब में धड़कते परदे के प्राण

एक व्यक्ति, दशकों तक जिसकी छवि एक खलनायक के रूप में लोगों के जेहन में बसी रही, जिससे मिलने से लोग खौफ खाते थे, पर्दे पर जिसकी विकरालता इतनी जीवंत थी कि लोगों ने उसे ही उसकी वास्तविक छवि मान लिया था, ऐसे अभिनेता प्राण जीवन के बारे में बताती है है बन्नी रूबेन की यह किताब-‘और प्राण’।
पर्दे से परे एक और छवि, जो एक इंसान के मन, जीवन, सपनों, संघर्षो और उम्मीदों का दस्तावेज है। वह व्यक्ति, जो पर्दे पर हमेशा अपराध और षडच्यंत्रों में लिप्त नजर आता था, अपनी असल जिंदगी में कितना सरल, ईमानदार और दयालु व्यक्ति था, जिसे जानने वाला हर व्यक्ति उससे स्नेह किए बगैर नहीं रह सकता था। किताब की भूमिका में अमिताभ बगान लिखते हैं, ‘मुझे लगा कि पर्दे पर खलनायक दिखने वाला व्यक्ति इतना भला और उदार कैसे हो सकता है.. मैंने उनसे सीखा कि अपने पेशे के प्रति पूरी निष्ठा और समर्पण ही एक अभिनेता की विशिष्टता और शक्ति होती है। वे सेट पर पहुंचने में कभी देर नहीं करते।
मिजाज ठीक न हो, तब भी शूटिंग कैंसिल नहीं करते। एक बार वे सेट पर बहुत गुमसुम और खामोश थे। जब घंटों उदासी से नहीं उबरे, तब हमें पता चला कि उनके भाई की मृत्यु हो गई है।’ ऐसी कहानियां तो अब्राहम लिंकन सरीखे लोगों के बारे में सुनने को मिलती हैं कि जीवन का कोई दुख, कोई पीड़ा उन्हें कर्म और कत्र्तव्य के रास्ते से इतर नहीं कर सकती थी। प्राण ने कभी सोचा नहीं था कि एक दिन मुंबई नगरी उनकी कर्म-भूमि होगी।
12 फरवरी, 1920 को पुरानी दिल्ली के बल्लीमारान इलाके में बसे एक रईस परिवार में प्राण कृष्ण सिकंद का जन्म हुआ। तमाम शहरों में विचरते हुए स्टिल फोटोग्राफर बनने की तमन्ना लाहौर ले आई। नौकरी-पैसा सब दुरुस्त था, लेकिन किस्मत में तो अभिनेता बनना लिखा था।
इस किताब में उन तमाम वर्षो की जद्दोजहद और उतार-चढ़ावों के मार्मिक किस्से हैं। लाहौर की फिल्मी दुनिया, मंटो से पहली मुलाकात, फिल्मों से पिता की नाराजी, शुक्ला से विवाह और बच्चों का जन्म। फिर विभाजन की त्रासदी है, लाहौर से मुंबई का रुख, बेरोजगारी और फाकाकशी के वे दिन, जब लोकल ट्रेन की टिकट के लिए भी गांठ में रुपए नहीं होते थे, जब पांच रु. रोज के मेहनताने पर पहला काम मिला। और फिर सफलता की बढ़ती सीढ़ियां, स्टारडम की चमक और शोहरत की बुलंदियां कि कैसे उन बुलंदियों पर बैठा कोई व्यक्ति उन बुलंदियों को ऐसे निस्पृह भाव से देखता है, मानो ये कल न भी हों तो कोई बात नहीं। पिता की यह सीख ताउम्र प्राण की आत्मा को राह दिखाती रही, ‘सफलता की सीढ़ियां चढ़ते हुए हमेशा नीचे उतर रहे लोगों के साथ अच्छा व्यवहार करना, क्योंकि हो सकता है कि भविष्य में तुम्हें भी नीचे की राह देखनी पड़े।’
इस किताब से गुजरना उस पूरे समय से गुजरना भी है। किस्से-कहानियां, प्रसंग और विचार तो नायकों के होते हैं। खलनायक की कैसी कहानी और कैसा विचार। लेकिन यह किताब उसी खलनायक के जीवन को एक विशाल कैनवास पर हमारे सामने प्रस्तुत करती है। और प्राण बड़े पर्दे पर चल रही एक फिल्म की तरह है, जिसका एक-एक फ्रेम कथानक के साथ गुंथा हुआ लगता है। चार दशकों तक सिने प्रेमियों के दिल पर राज करने वाले एक शख्स की लंबी यात्रा का हर मोड़, हर पड़ाव इस किताब में है। किताब पढ़कर महसूस होता है कि इसे तैयार करने में काफी अध्ययन, शोध और परिश्रम किया गया है।
घटनाएं, प्रसंग और उन्हें कहने का अंदाज बांधकर रखता है, लेकिन अनुवाद कहीं-कहीं यांत्रिक और बोझिल हो गए हैं। सिनेमा में जिनकी रुचि है, उनके लिए तो यह किताब है ही, लेकिन सिनेमा से इतर जो जीवन के बारे में, उसके रंगों और उतार-चढ़ावों के बारे में पढ़ना चाहते हैं, उनके लिए भी इस किताब से गुजरना कहीं-न-कहीं एक समृद्ध करने वाला अनुभव ही होगा।

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